
भूमि सुधार कानून स्वतंत्रता के बाद बनी सरकार की मुख्य प्राथमिकता थी जिसके तहत जमीन को अमीरों से लेकर गरीबों में बांट कर परंपरावादी जमींदारी प्रथा को समाप्त करना था। लेकिन आज किसी भी पार्टी के घोषणा-पत्र में यह नजर नहीं आता।
वर्ष 2012 में एकता परिषद् ने भूमि सुधार की मांग को लेकर ग्वालियर से दिल्ली तक पद यात्रा की थी। केंद्र् सरकार ने इस मांग को स्वीकार भी कर लिया था और आवासीय भूमि विधेयक (होम्स्टेड लॉ) का प्रारूप भी तैयार हो चुका था। लेकिन वह संसद में पारित नहीं हो सका। एकता परिषद् के अध्यक्ष पीवी राजगोपाल बता रहें हैं कि क्यों यह भूमि सुधार के लिए कठिन समय है और कैसे इससे निपटने के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटने की जरूरत है।
आपका अभियान भूमिहीन और बेघर लोगों पर केंद्रित है। इस समस्या को आप कितना व्यापक मानते हैं ?
भारत में करीब चार करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास खुद की जमीन नहीं है। इनमें से करीब 30 फीसदी ऐसे हैं जो खेती से जुड़े हैं, लेकिन उनके पास कृषियोग्य भूमि नहीं है। वे बड़े-बड़े जमीदारों की जमीन पर फसल उगाते हैं। यहां तक कि मुख्यमंत्रियों और मुख्य सचिवों की खुद की कृषिभूमि है हालांकि यह अलग बात है कि वे उन जगहों पर कभी गए तक नहीं हैं। तो कहने का मतलब यह है कि जमीन उनके पास है जिनका खेती से कोई लेना-देना नहीं है। इसका कारण यह है कि आज जमीन को खेती करने के साधन के रूप में नहीं माना जा रहा है बल्कि यह एक व्यावसायिक संपत्ति के तौर पर देखी जा रही है।
भारत में करीब चार करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास खुद की जमीन नहीं है। इनमें से करीब 30 फीसदी ऐसे हैं जो खेती से जुड़े हैं, लेकिन उनके पास कृषियोग्य भूमि नहीं है। वे बड़े-बड़े जमीदारों की जमीन पर फसल उगाते हैं
आवासीय भूमि विधेयक का प्रारूप पिछली सरकार के दौरान तैयार हो चुका था। लेकिन वह संसद में नहीं पहुंच सका। इसे पारित कराने के लिए आप नई केंद्र् सरकार को कैसे पृभावित करेंगे?
हम पहले ही बहुत सी राजनीतिक पार्टियों से बात कर चुके हैं और उन्हें कह चुके हैं कि आपको आवासीय भूमि पर समझौता नहीं करना चाहिए। यह भूमि सुधार की सबसे छोटी जरूरत है। आवासीय भूमि हर किसी को कम से कम 10 सेंट तो मिलनी ही चाहिए यानि एक एकड़ का 10 फीसदी। कुछ राज्यों ने इसे गंभीरता से लिया और वर्ष 2012 में किए गए अपने वादे को पूरा किया। यहां तक कि मध्य प्रदेश सरकार ने तो आवासीय भूमि को देना भी शुरू कर दिया है। कहीं-कहीं पर तो उन्होंने 10 सेंट से भी ज्यादा दिया है। इसके साथ ही मध्य प्रदेश के बहुत से गांवों में जहां लोग लंबे समय से रह रहे थे, उन्हें नियमित भी कर दिया है। कहीं-कहीं प्रति एकड़ पर 30 सेंट तो कहीं आधी एकड़ जमीन तक दी है, जो कि हमारी मांग से कही ज्यादा है।
मध्य प्रदेश सरकार ने आवासीय भूमि देना शुरू कर दिया है। इसके साथ ही मध्य प्रदेश के बहुत से गांवों में जहां लोग लंबे समय से रह रहे थे, उन्हें नियमित भी कर दिया है। कहीं-कहीं प्रति एकड़ पर 30 सेंट तो कहीं आधी एकड़ जमीन तक दी है
वहीं केरल सरकार मात्र तीन सेंट देकर खानापूर्ति कर रहे हैं। उन्होंने एक नारा दिया है कि वे राज्य से भूमिहीनता को पूरी तरह खत्म करने जा रहे हैं। यानि राज्य में कोई भी भूमिहीन नहीं रहेगा। इसके तहत उन्होंने करीब एक लाख लोगों को तीन सेंट का पट्टा भी दिया। लेकिन हम इस नीति का विरोध करते हैं। हमारा कहना है कि एक व्यक्ति को कम से कम 10 सेंट तो मिलना ही चाहिए जिसमें वह रहने के लिए एक छोटा सा घर, बागवानी और कुछ जगह का प्रयोग पशुपालन के लिए कर सके। तभी इसे आवासीय भूमि कहा जा सकता है। अभी तक करीब 45,000 एकड़ जमीन भूमिहीनों को दी जा चुकी है। बावजूद इसके वापस की गई यह जमीन गरीबों से छीनी गई जमीन की एक चौथाई है।
इसके साथ ही बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनकी जमीन खनन, बिजली परियोजना, राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव संरक्षण के नाम पर चली गई है। इसलिए हमारा कहना है कि वन्य अधिकार अधिनियम को सशक्त रूप से लागू किया जाए, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को उनकी खोई हुई जमीन मिल सके।
केंद्र सरकार से आपको क्या उम्मीदें हैं ?
नई सरकार विकास के एजेंडे के साथ सत्ता में आई है। यानि ज्यादा शहरीकरण और औद्योगीकरण। इसके लिए जमीन की जरूरत पड़ेगी, जो कि गरीबों से ली जाएगी। इसके साथ ही इस समय विश्व बैंक ने एक अध्ययन शुरू किया है। इसमें वे विभिन्न देशों को निवेश की संभावना के हिसाब से रेटिंग कर रहे हैं। उस रेटिंग को देखकर लोग निवेश करते हैं। रेटिंग के लिए उन्होंने कुछ मापदंड रखे हैं जैसे जमीन उपलब्ध है कि नहीं, जमीन उपलब्ध कराने के लिए सरकार के कानून उपयुक्त हैं कि नहीं। सरकार का कानून जहां जमीन उपलब्ध कराने के लिए अनुकूल है, वह औद्योगीकरण के लिए सबसे अच्छी जगह है, इसीलिए वहां लोग निवेश करना चाहते हैं।
तो इस तरह विश्व बैंक की इस रेटिंग के हिसाब से निवेश के लिए सही जगह का चयन किया जा रहा है। ऐसे में हर देश में खुद को रेटिंग में ऊपर रखने की एक होड़ लग गई है। इस रेटिंग सिस्टम के कारण ही सरकारें गरीबों को जमीन उपलब्ध कराने की बजाय, पूंजीपतियों को जमीन देने के लिए कानून को बदल रही है। आप देख सकते हैं कि नया भूमि अधिग्रहण कानून भी किसानों की हित की बात नहीं करता। उसमें भी कहा जा रहा है किसानों को उनकी जमीन के बदले चार गुना ज्यादा मुआबजा दिलाया जाएगा। इसमें एक तरह से ग्रामीणों से कहा जा रहा है कि जमीन के पैसे लो और शहरों में जाओ, वहां झुग्गी झोपड़ियों में रहो। सरकार की इस विकासवादी सोच के चलते हजारों गांव बर्बाद हो रहे हैं।
तो हमने कुछ और संस्थाओं के साथ मिल कर इस रेटिंग सिस्टम के विरोध में एक अभियान शुरू किया है। हमारा कहना है कि इस रेटिंग सिस्टम को बंद किया जाए।
नई सरकार विकास के एजेंडे के साथ सत्ता में आई है। यानि ज्यादा शहरीकरण और औद्योगीकरण। इसके लिए जमीन की जरूरत पड़ेगी, जो कि गरीबों से ली जाएगी
क्या आपको लगता है कि गरीबों को देने के लिए सरकार के पास पर्याप्त जमीन है ?
जी हां बिल्कुल। लेकिन यह सरकार का इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसे जमीन देना चाहती है और किसे नहीं। अभी तक देश में हजारों एकड़ जमीन उद्योगपतियों को दी जा चुकी है। लेकिन किसानों को देने के लिए उनके पास जमीन नहीं है। वैसे भी हम किसानों के लिए कोई नई जमीन नहीं मांग रहे हैं। हम तो बस उपलब्ध जमीन को सुनियोजित करने की बात कर रहे हैं। हम सरकार से चार चीजें कह रहे हैं। जैसे-
- जिन दबंग लोगों ने गरीबों की जमीन हड़पी है उन्हें सजा दी जाए और गरीबों की जमीन उन्हें वापस
दिलाई जाए। वास्तव में यह आपराधिक मामला है, लेकिन इसे रेवेन्यू कोर्ट में फंसा दिया जाता है, जहां सालों सुनवाई चलती रहती है। जबकि इस तरह के आपराधिक मामलों की जल्दी से जल्दी सुनवाई होनी चाहिए और गरीबों को न्याय मिलना चाहिए।
- दूसरी बात जो हम सरकार से कह रहे हैं कि जहां जो लोग लंबे समय से रह रहे हैं उसे नियमित कर देना चाहिए। वह चाहे गांव की जमीन हो या फिर जंगल की। जैसा कि मध्य प्रदेश में कुछ जगह पर किया गया है। ऐसा करने से आधी से ज्यादा समस्या का हल हो जाएगा।
- इसके अलावा हमने कहा कि अगर कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम विनोबा भावे की ‘भूदान आंदोलन’ की जमीन ही किसानों को दिला दी जाए जो कि भू-माफियाओं के हाथ में है।
- इसके साथ ही सीलिंग एक्ट को सही तरह से लागू करके जो अतिरिक्त जमीन बचेगी उसे किसानों को बांट दिया जाए। वास्तव में सीलिंग एक्ट में भूमि मालिकों के लिए सिंचित और गैर सिंचित भूमि की सीमा निर्धारित की गई है। लेकिन देश के विभिन्न राज्यों में इस कानून का सही तरह से पालन नहीं हो रहा है। तो इस पर निगरानी रखने के लिए एक केंद्रीय मॉनिटरिंग सिस्टम बना देना जाना चाहिए।
हमारा कहना है कि अगर सरकार इतना भी नहीं कर सकती तो चुनाव जीत कर सत्ता में आने का क्या मतलब है।? यह मेरी समझ से परे है।
भूमि सुधार की राह में राजनीतिक इच्छाशक्ति के अलावा और क्या रुकावटें आप महसूस कर रहे हैं ?
आज समस्या यह है कि हर कोई जमीन में निवेश कर रहा है। पहले लोग काले धन को सोने में लगाते थे, लेकिन आज वे इस पैसे को जमीन पर लगा रहे हैं। यहां तक कि आज विदेशी बैंक प्रॉपर्टी एजेंट की तरह काम कर रहे हैं। लोग जहां हैं, वहां बैठे ही भारत में जमीन खरीद सकते हैं। उन्हें भारत में आने की भी जरूरत नहीं है। इसके साथ ही आज भू-माफिया बहुत ही मजबूत है। उनसे एक इंच जमीन भी लेना धारा के विपरीत तैरने के समान है।
मेरा तो यह मानना है कि सबसे बड़ा भ्रष्टाचार जमीन में ही है। तो भ्रष्टाचार कम करो, भ्रष्टाचार कम करो कहने से समस्या का हल नहीं होगा। जहां-जहां, जिस-जिस के पास भारी भरकम जमीन है, उनका पता लगाया जाए और अगर यह निर्धारित सीमा से अधिक है तो इसे वापस लिया जाए। केरल मैं एक ब्रिटिश कंपनी के पास 80 हजार एकड़ जमीन है। तो आप देख सकते हैं कि किस तरह सरकार के पास गरीब आदमी को झोपड़ी बनाने के लिए जमीन नहीं है, लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियों ने हजारों एकड़ जमीन पर कब्जा कर रखा है।
आज जबकि गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं और औद्योगीकरण पर जोर दिया जा रहा है, ऐसे में क्या आपको लगता है कि भूमि सुधार से गरीबों की समस्या कोवास्तव में हल किया जा सकता है ?
सरकार का पूरा झुकाव निजी कंपनियों की तरफ है। उनका सोचना है कि ज्यादा से ज्यादा जमीन निजी कंपनियों को दो। वे रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग करके पैदावार को बढ़ाएंगे। ज्यादा उत्पादन होगा तो उसका निर्यात किया जा सकेगा। इससे देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाया जा सकेगा। तो कहने का मतलब यह है कि सरकार का ध्यान इस बात में नहीं है कि गरीबों को कैसे काम मिले, वे कैसे स्वाभिमानी जीवन जी सकें और कैसे आत्मनिर्भर बन सकें। उनका तो ध्यान इस बात में है कि कैसे व्यापार को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जा सके। उसके साथ ही लोगों को संतुष्ट रखने के लिए एक रुपया चावल, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन जैसी योजनाएं चलाई जाती हैं। तो कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार का अपने ढ़ंग का राहत कार्यक्रम, कल्याणकारी कार्यक्रम है, लेकिन संरचनात्मक परिवर्तन कुछ भी नहीं करना चाहते।
यही कारण है कि लोग गांव छोड़ कर शहरों की ओर आ रहे हैं। अगर हम आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि पिछले 40 सालों में 93 हजार गांव बर्बाद हो चुके हैं। अगर हम इसी तरह उद्योग, सुपरबाजार और फ्लाईओवर बनाने पर जोर देते रहे तो ज्यादा से ज्यादा लोगों को गांव छोड़ कर शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर होना पड़ेगा। गांव की सभ्यता संस्कृति नष्ट हो जाएगी। आज भी गांवों में बहुत से लोग हैं जिन्हें तेजी से खदेड़ने की कोशिश हो रही है। इन्हें बचाने के लिए सामाजिक संगठनों को अपना आंदोलन तेज करना पड़ेगा। इन आंदोलनों के जरिए ग्रामीणों के लिए जगह बनानी होगी।
अगर हम आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि पिछले 40 सालों में 93 हजार गांव बर्बाद हो चुके हैं। अगर हम इसी तरह उद्योग, सुपरबाजार और फ्लाईओवर बनाने पर जोर देते रहे तो ज्यादा से ज्यादा लोगों को गांव छोड़ कर शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर होना पड़ेगा
एकता परिषद् ने ‘बैक टू विलेज’ नाम से अभियान चलाया है। इसका क्या मतलब है ?
‘बैक टू विलेज’ के माध्यम से हम कह रहे हैं कि ग्लोबलाइजेशन के विरोध में लोकलाइजेशन को मजबूत किया जाए। लोकलाइजेशन का मतलब है स्थानीय सभ्यता-संस्कृति, भाषा, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, संगठन को मजबूत किया जाए। केवल ग्लोबलाइजेशन को भला-बुरा कहने से ग्लोबलाइजेशन बदलेगा नहीं। तो बैक टू विलेज का मतलब है, गांव की अर्थव्यवस्था को मजबूत करो, गांव में जो जल, जंगल और जमीन है उसे सुनियोजित करो। गांव की भाषा, गांव की संस्कृति पर बातचीत करो। गांव के धानबोला, ग्रामकोष को मजबूत करो। जो विनोबा जी ने कहा, “एक्ट लोकली, थिंक ग्लोबली”, इस बात को अमल में लाना होगा।
इसके साथ ही हम कह रहे हैं कि अभी जो कुछ भी मिला उसे ठीक करो। वन अधिकार अधिनियम के तहत जो जमीन मिली है उसे ठीक किया जाए और अगली लड़ाई की तैयारी की जाए। ग्रामीणों और किसानों के अधिकारों को लेकर हम लोग कई सालों से उनको साथ लेकर दिल्ली से पदयात्रा कर रहे हैं। इसी कड़ी में वर्ष 2012 में एक लाख ग्रामीण हमारे साथ थे, लेकिन वर्ष 2020 में 10 लाख लोग साथ चलेंगे। जिसका उद्देश्य होगा, गांव को मजबूत करते हुए अगले आंदोलन की तैयारी। तो उसी का नाम हमने ‘बैक टू विलेज’ दिया है।
बैक टू विलेज का मतलब है, गांव की अर्थव्यवस्था को मजबूत करो, गांव में जो जल, जंगल और जमीन है उसे सुनियोजित करो। गांव की भाषा, गांव की संस्कृति पर बातचीत करो। गांव के धानबोला, ग्रामकोष को मजबूत करो
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