मध्य प्रदेश में जैविक खेती के एक प्रयोग द्वारा विकलांगों को मुख्य धारा से जोड़ा जा रहा है
लेमन घास से बनी उस चाय का स्वाद मैं आज तक नहीं भूल सका जिसे ओमचंद महतुले ने अपने हाथों से बनांया था और हम दोनों ने उसे उन्हीं के खेत में छप्पर वाली छत के नीचे बैठ कर पिया। महतुले से मेरी मुलाकात वहीँ हुई, मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में नया गांव कस्बे की ओर जाने वाली सड़क पर। महतुले के यह खेत आज अपनी अलग ही पहचान बना चुके हैं।
अभी हाल ही में कोई उनके खेतों से लौकी चुरा कर ले गया। गुस्से में महतुले उस अनजान चोर को गालियां दे रहें थे। महतुले का सोचना है कि उनकी सफलता से दूसरे लोग जलते हैं। वे इस क्षेत्र में उन्नत किस्म की सब्जियां उगा रहे हैं, जो कि न केवल मात्रा में ज्यादा होती हैं बल्कि पास के बाजार में जाते ही जल्दी से बिक जाती है। वह पिछले दो सालों से आर्गेनिक या जैविक खेती से जुड़े हैं और उनका दावा है कि इससे न सिर्फ मिट्टी में नमी बढी है, बल्कि लागत भी Rs 35,000 तक कम हो गयी है’।
महतुले के खेत सोयाबीन, मूंगफली, सभी तरह की दालों और सब्जियों से भरे पड़े हैं। और इसका श्रेय वे अपने बेटे राजेश को देते हैं। हालांकि राजेश का कमर के नीचे का भाग काम नहीं कर सकता, वह व्हील चेयर पर हर रोज़ खेतों की निगरानी करने आता है। साइंस में स्नातकोत्तर राजेश की प्राकृतिक काम को करने के लिए पैनी नजर है। प्राकृतिक खाद बनाना, अलग-अलग फसलों को लगाने का सही समय आदि सब राजेश को याद है।
हालांकि राजेश का कमर के नीचे का भाग काम नहीं कर सकता, वह व्हील चेयर पर हर रोज़ खेतों की निगरानी करने आता है। साइंस में स्नातकोत्तर राजेश की प्राकृतिक काम को करने के लिए पैनी नजर है
महतुले कहते हैं कि बहुत से लोग सोचते हैं कि विकलांग लोग खेती में अपना योगदान नहीं दे सकते, लेकिन राजेश ने बहुत सारे तरीकों से खेती से आमदनी बढ़ाने में मदद की है’। वह हर हफ्ते अपनी व्हील चेयर से सब्जी बेचने पास के बाजार में भी जाता है। उसका कहना है: “हमारी सब्जियां देखने में और स्वाद में दूसरे सब्जी वालों के मुकाबले अच्छी होती हैं यही कारण है कि बाजार में पहुंचते ही सबसे पहले मेरी सब्जियां ही बिकती हैं। यह ऑर्गेनिक खेती का ही असर है कि हम ऐसी सब्जियां उगाकर बाजार तक पहुंचा पा रहे हैं।“
इस नौजवान ने गांव के ही करीब 17 किसानों को खाद बनाने, निराई करने और फसलों को प्राकृतिक तरीके से उगाने के लिए प्रशिक्षित किया है। इस तरह से जैविक खेती ने राजेश को न सिर्फ एक नेता के तौर पर अपनी अभिव्यक्ति करने का मौका दिया है बल्कि दूसरों की जिंदगी को संवारने का मुख्य स्त्रोत भी बना दिया है।
हमारे देश में विकलांग व्यक्तियों को ज्यादातर निरुपयोगी और आश्रित समझा जाता है। गाँव में यह हालात और भी बदतर हो जाते हैं जहां पर बुनियादी सुविधाओं की कमी और सहायक उपकरणों का आभाव विकलांगों को अपनी क्षमता पहचाने से रोकते हैं। ऐसी स्थिति में जैविक खेती में विकलांगों का योगदान हैरानी ही उत्पन्न करेगा। लेकिन बैतूल स्थित नमन सेवा समिति से जुड़े लोग एक नई धारणा स्थापित कर रहें हैं।
नज़र से बढ़ कर नजरिया
39 वर्षीय महादेव चारोकर देख नहीं सकते लेकिन उनकी सुनने, सूंघने और छू कर पहचानने की समझ लाजवाब है। वे रुपये के नोटों में आसानी से अंतर कर सकते हैं, अपने खेतों तक बिना सहायता के जा सकते हैं और यहां तक कि सधे हुए बैलों से खेत भी जोत सकते हैं।
जब नमन सेवा समिति ने बैतूल में जैविक खेती शुरू करने की सोची तो चारोकर सबसे समर्पित सिपाही साबित हुए। आज उनके गांव जवारा में उन्ही की वजह से करीब 27 किसान जैविक खेती से जुड़ चुके हैं। चारोकर खुद ही न केवल जैविक खाद बनाते हैं, बल्कि दूसरे किसानों को भी खाद बनाने और प्राकृतिक बीज उपचार का प्रशिक्षण देते हैं।
आज उनके द्वारा विभिन्न चीजों का सटीक मापन, गोबर की गुणवत्ता का आकलन और कम्पोस्ट पिट बनाने पर कोई अचरज नहीं करता। गांव वालों उनकी समझ और कौशल के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि वह उन्हें किसी दृष्टिहीन व्यक्ति की तरह नहीं बल्कि एक कुशल किसान की तरह देखते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि चारोकर अब समाज की मुख्य धारा से जुड़ चुके हैं। वे कहते हैं: “मेरी यह दृष्टिहीनता न तो मेरे लिए और न ही दूसरों के लिए कोई बाधा है। मैं ठीक से बोल सकता हूं, जो कि लोगों को प्रेरित करता है और धीरे-धीरे उनके भरोसे को पक्का करता है।“
चारोकर जैविक खाद और कम्पोस्ट बनाने के कुशल प्रशिक्षक हैं। उनकी इसी विशेषता के चलते दूसरे गांवों के किसान भी उन्हें यह सीखने के लिए बुलाते हैं, जिससे उनको अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती है। अब वे एक छोटी सी दुकान खोलने की योजना बना रहे हैं, जहां से किसान आसानी से जैविक खाद खरीद सकते हैं।
विभिन्न चीजों का सटीक मापन, गोबर की गुणवत्ता का आकलन और कम्पोस्ट पिट बनाने पर कोई अचरज नहीं करता। गांव वालों उनकी समझ और कौशल के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि वह उन्हें किसी दृष्टिहीन व्यक्ति की तरह नहीं बल्कि एक कुशल किसान की तरह देखते हैं
जीवन देती जैविक खेती
नमन सेवा समिति का जैविक खेती से परिचय अकस्मात् हुआ। काठगोडाम (उत्तराखंड) में हुई एक वर्कशॉप में समिति के चार सदस्य शामिल हुए थे। वे इस विचार से इतने प्रभावित हुए कि लौटते ही इसे अपने खेतों में इसे आजमाना शुरू कर दिया, जिसके उन्हें अच्छे परिणाम भी मिले। जैविक खेती के बारे में और अधिक जानने के लिए इन लोगों ने दूसरे राज्यों का भी दौरा किया। इससे इनका यह विश्वास मजबूत हो गया कि जैविक खेती कृषि के साथ-साथ पर्यावरण और स्वास्थ्य़ संबंधी समस्याओं का समाधान हो सकती है, जिससे इस क्षेत्र के लोग लंबे समय से जूझ रहे हैं।
बैतूल के दक्षिण में विदर्भ क्षेत्र भारत में किसानों की सबसे ज्यादा आत्महत्या के लिए बदनाम है। मानसून की बारिश इस पहाड़ी क्षेत्र में उपजाऊ मिटटी के कटाव का कारण बनती है। वहीं भू-जल भी 400-1000 फुट की गहराई तक ही मिल पाता है। खेती में बढ़ती लागत किसानों को आर्थिक रूप से कमजोर कर रही है। वहीं मौसम का बदलाव इस संकट को और ज्यादा बढ़ा रहा है। नमन सेवा समिति के सेक्रेटरी शिशिर चौधरी कहते हैं कि इस क्षेत्र में जैविक खेती बहुत ही आवश्यक है: ” जैविक खाद मिट्टी में नमी को बनाए रखती है, साथ ही जैविक फसलों के मजबूत डंठल मिट्टी के कटाव को रोकते है। कम लागत और पौष्टिक खाना गरीबी और कुपोषण से लड़ने में मदद करते हैं जो कि विकलांगता के दो बड़े कारण हैं।“
क्योंकि नमन पहले से ही व्यावसायिक ट्रेनिंग और सरकारी योजनाओं के तहत विकलांगों के साथ काम कर रहा है, किसी भी नई पहल में इनका समावेश होना ज़रूरी है। जैविक खेती ने यह बाधा भी आसानी से पार कर ली। बाजारी उपकरणों पर कम से कम निर्भरता की वजह से जैविक खेती ज्यादा मेहनत मांगती है, फिर चाहे वह अच्छी क्वालिटी के बीजों का संरक्ष्ण करना हो, खाद बनाना हो, पशुओं को जैविक चारा पर पालना या फिर फसल का रख रखाव। किसानों को जैविक खेती की ट्रेनिंग देने वाले कृष्ण कुमार बताते हैं कि जहां आम किसान काम के बोझ का रोना रोते हैं, वहीं चारोकर जैसे विकलांग इसमें खुद को साबित करने का अवसर पाते हैं। “चूंकि विकलांग गरीबी, कुपोषण और दूषित पर्यावरण से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, उन्हें जैविक खेती में शामिल करने का मतलब है कि हम उन्हें इन सब मुश्किलों से लड़ने का एक कारगर हथियार दे रहे हैं।“
इस क्षेत्र में जैविक खेती बहुत ही आवश्यक है । जैविक खाद मिट्टी में नमी को बनाए रखती है, साथ ही जैविक फसलों के मजबूत डंठल मिट्टी के कटाव को रोकते है। कम लागत और पौष्टिक खाना गरीबी और कुपोषण से लड़ने में मदद करते हैं जो कि विकलांगता के दो बड़े कारण हैं
कृष्ण कुमार जैसे प्रशिक्षक जैविक खेती की ट्रेनिंग को उन लोगों के लिए आसान बना रहे हैं जो विभिन्न तरह की विकलांगता से ग्रसित हैं। हाथ पैर से बाधित साथियों के लिए आवश्यकता अनुसार छोटे और हल्के उपकरण विकसित हुए, दृष्टिहीनों को सूघने और छूने से ज्ञान मिला तथा मूक बधिरों के लिए विशेष सांकेतिक मोडयूल तैयार किये गये ।
इन सब प्रयासों की वजह से आज करीब 327 किसान, 165.76 हैक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती कर रहे हैं। इनमें से 81 महिलाएं है और 161 विकलांग या उनके परिवार के सदस्य हैं। तकरीबन 74 प्रशिक्षक, जिसमें ज्यादातर चारोकर की तरह विकलांग हैं, जैविक खाद, कीट नियंत्रण, खेतों का रखरखाव, पशुधन प्रबंधन और सरकारी योजनाओं की जानकारी किसानों को देते हैं।
जहां आम किसान काम के बोझ का रोना रोते हैं, वहीं चारोकर जैसे विकलांग इसमें खुद को साबित करने का अवसर पाते हैं
बनाया वित्तीय समूह
हर किसान जो चार हैक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में जैविक खेती करता है वह एक वित्तीय समूह का सदस्य है। ऐसे 24 समूह हलदर कृषक संघ से सम्बन्धित हैं जो कि इन जैविक उत्पादों को प्राप्त कर उन्हें बाजार में बेचता है। एक 11 सदस्यीय समिति इस संघ के कामकाज को देखती है।
संघ के काफी सदस्यों के लिए जैविक खेती एक अवसर के रूप में उभरा है जिसका वे काफी देर से इंतजार कर रहे थे। संघ के वर्तमान अध्यक्ष योगराज खाकरा इसे प्रायश्चित और उम्मीद की यात्रा की तरह देखते हैं। उनकी पांच साल की बेटी वैष्णवी की पिछले साल मौत हो गई। वह जन्म से ही मानसिक और शारीरिक विकलांग थी।
योगराज इसके लिए उस फसल को जिम्मेदार मानते हैं जिसे वे उगाते और खाते थे । वे दुखी मन से कहते हैं: “मैं अपने खेतों में बहुत ज्यादा यूरिया और कीटनाशकों का प्रयोग करता था ताकि ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हो सके। पैसे को प्राथमिकता देना मुझे बहुत महंगा पड़ गया।“ उनकी बात पर विश्वास करना मुश्किल नहीं। बहुत से अध्ययन और वास्तविक प्रमाण बताते है कि प्रसव पूर्व कीटनाशकों के संपर्क में आने से काफी बच्चों में आनुवांशिक बीमारियां और मंद बुद्धि जैसे लक्षण आते हैं।
योगराज ने धीरे-धीरे जैविक खेती का क्षेत्र बढ़ा कर आज 5 एकड़ कर लिया है। उनका कहना है कि एक दम से जैविक खेती में जाना आसान नहीं है। पहले साल में उत्पादन में कमी ज्यादा देखने को मिलती है और इस नुकसान से बचने के लिए ही किसान हर साल एक एकड़ क्षेत्र को बढ़ाते हैं। योगराज इस समय अपने क्षेत्र का बेहतरीन गेहूं और सोयाबीन उगा रहे हैं, जिसे देखने आस-पास के गांवों से किसान आते हैं और उनसे बीज भी खरीद कर ले जाते हैं। “मैं सोयाबीन के बीज को 6,500 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से बेचता हूं, जबकि इसकी बाजार कीमत 6,000 रुपए है। जब से मैंने जानवरों को जैविक चारा देना शुरू किया है, दूध की मात्रा के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता में भी सुधार आया है।“
आठनेर कस्बे के करीब 15 परिवार इनसे दूध लेते हैं जबकि उनका मूल्य बाज़ार से करीब 50 फीसदी ज्यादा है। “हमारे दूध की क्वालिटी बहुत अच्छी होने के चलते कीमत बढ़ने के बावजूद लोग हम से ही दूध ले रहे हैं।“ योगराज अभी तक अपने ही गांव के करीब 15 किसानों को प्रशिक्षित कर चुके हैं, जो कि अब जैविक खेती कर रहे हैं। पर वह मानते हैं कि जैविक खेती का प्रसार अभी भी बहुत कम है: “बहुत से किसान मेरी फसल की सराहना करते हैं, लेकिन खुद अपनी फसलों पर रसायन छिड़क रहे हैं क्योंकि जैविक खेती में किसान की मेहनत अधिक लगती है।“ बात करते करते एक छोटी सी बच्ची अपनी तुत्ली आवाज में चहकती हुई हमारे पास आ गयी। योगराज बोले, ‘यह मेरी दूसरी बेटी है। यह पूरी तरह से स्वस्थ है और इसका श्रेय इस रसायनमुक्त उत्पादन को जाता है जिसे अब हम खाते हैं’।
आठनेर कस्बे के करीब 15 परिवार इनसे दूध लेते हैं जबकि उनका मूल्य बाज़ार से करीब 50 फीसदी ज्यादा है। “हमारे दूध की क्वालिटी बहुत अच्छी होने के चलते कीमत बढ़ने के बावजूद लोग हम से ही दूध ले रहे हैं
जिस तरह से जैविक खेती विकलांगता के लिए जिम्मेवार मुद्दों से निपट रही है, अंग्रेजी का वह कथन ‘नेचर इस अ ग्रेट लेवेलर’ (प्रकृति सबको एक समान देखती है) सच लगता है।
आपसी निगरानी से होती है फसल
जैविक खेती करने के लिए जरूरी औपचारिक प्रमाण पत्र पाने के लिए संघ के सभी सदस्य आवश्यक मानकों का पालन कर रहे हैं। इसके साथ ही पीयर एजूकेटर फसलों की लगातार निगरानी करते हैं और बीजों के उपचार, उपकरणों की साफ-सफाई, जैविक कीटनाशक बनाने की विधि और फसलों के लिए विशेष स्टोर बनाने के बारे में ट्रेनिंग देते हैं।
चूंकि हर गांव में एक से ज्यादा जैविक खेती करने वाले किसान है, इसीलिए स्व-नियंत्रण ज्यादा प्रभावी हो गया है। हर सदस्य एक दूसरे के काम पर नजर रखता है और जो नियमों का पालन नहीं करता उसकी शिकायत संघ को जाती है। इसी सख्त समीक्षा प्रणाली के चलते नियमों का उल्लंघन करने वाले 173 किसानों के खेती करने पर रोक लगा दी गई । समूह के प्रयासों को सरकारी योजनाओं का साथ भी मिल जाता है। संघ से जुड़े लगभग 200 किसानों को जैविक खाद तैयार करने के लिए कम्पोस्ट पिट बनाने के लिए अनुदान मिला, वहीं 19 किसानों को उपज की ग्रेडिंग के लिए मशीनें मिलीं हैं।
समूह के प्रयासों को सरकारी योजनाओं का साथ भी मिल जाता है। संघ से जुड़े लगभग 200 किसानों को जैविक खाद तैयार करने के लिए कम्पोस्ट पिट बनाने के लिए अनुदान मिला
हलदर कृषक संघ का अगला लक्ष्य जैविक उत्पादों के लिए बाजार को तैयार करना है। हालांकि बहुत सी सरकारी एंजेसियां और निजी कंपनियां इनकी फसल को खरीदने में पहले से ही रुचि दिखा रहीं हैं, यह बाज़ार को समझने में जुटे हैं ताकि उन्हें उनकी फसलों का सर्वोत्तम दाम मिल सके। इस पहल के अच्छे परिणामों की ख्याति अब और जगह भी फ़ैल रही है जिससे उम्मीद है कि दूसरे गाँव में भी विकलांगो का खेती और समाज से जुड़ाव बढ़ेगा।
संपादन: वंदना गुप्ता
अगर आपको यह लेख पसंद आया तो हमारे कार्य को अपना समर्थन दें