November 9, 2014
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गांवों में लोगों ने स्थानीय सामग्री का प्रयोग करके, वहां की जलवायु को समझते हुए आवासों का निर्माण किया है

पिछले कल के जलवायु के अनुकूल घरों से आज के कंक्रीट और कांच के बने नीरस ढाचों में, हम वास्तविक सुंदरता और लगाव खोते जा रहे हैं। शुक्र है, यहां ऐसे लोग हैं जो कि उन प्रथाओं को जिंदा कर रहे हैं

भारत जैसी जगह में रहने की खूबसूरती यह है कि यहां हर सौ किलोमीटर पर नई जगह में होने का अहसास होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि लोग बदलते हैं, उनके कपड़े, उनकी भाषा, रहन सहन सब कुछ बदलता है। और यह बात इन जगहों की वास्तुकला पर भी सच साबित होती है। 

इस वास्तविकता को देखने का अच्छा तरीका यह है किसी भी बड़े शहर से बाहर, ग्रामीण इलाकों की ओर जाया जाए। यह बदलाव घरों की लंबाई चौड़ाई के रूप में तो स्पष्ट दिखता ही है, इसके साथ ही उनकी बनावट, प्रयोग सामग्री, योजना और ऑरिएंटेशन  में भी नजर आता है। पर अब शहरीकरण का असर देश के अन्य हिस्सों पर पड़ रहा है और यह असर बहुत ही हानिकारक है। 

विश्वव्यापीकरण के नक्शेकदम पर चलते हुए हम अपने शहरों को अगला शिंघाई और दुबई बनाने में जुटे हैं और इसके चलते एक मजबूत सांस्कृतिक पहचान पीछे छोड़ते जा रहे हैं। वास्तुकला में यह बदलाव परंपरागत, अनूठे और उस जगह की जलवायु के हिसाब से बने हुए से लेकर आधुनिक, नीरस और सामान्य घरों के रूप में पहले के मुकाबले अब और तेजी से हो रहा है।  

उदाहरण के लिए पहले हम दूसरों की नकल करने की बजाय अपनी खुद की अद्वितीय वास्तुकला विकसित किया करते थे। लोगों ने स्थानीय सामग्री का प्रयोग करके, वहां की जलवायु को समझते हुए, अपने कौशल से प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना सफलतापूर्वक आश्रयों, आवासों का निर्माण किया पर इस समझ में अब एक विशिष्ट परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देता  है। अब चूने और पत्थर का स्थान सीमेंट और कंक्रीट ले रहे हैं। मिट्टी के खपरैल का स्थान टिन की चादरें ले रही हैं। और घरों का स्थान इमारतें ले रही हैं। 

पहले हम दूसरों की नकल करने की बजाय अपनी खुद की अद्वितीय वास्तुकला विकसित किया करते थे। लोगों ने स्थानीय सामग्री का प्रयोग करके, वहां की जलवायु को समझते हुए, अपने कौशल से प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना सफलतापूर्वक आश्रयों, आवासों का निर्माण किया 

लोग कामयाब कैसे हुए

स्थानीय और परंपरागत घरों के साथ एक आम धारणा जुड़ी है कि यह मजबूत नही हैं और उनका रखरखाव भी मुश्किल है। इस बात को समझने के लिए हमें सिर्फ वर्ष 2001 में गुजरात में आए भूकंप को देखने की जरूरत है जहां केवल कच्छ में बने गोलाकार आकार के भुंगा ही सुरक्षित बचे। 

कच्छ में बने गोलाकार आकार के भुंगा इन घरों को विशिष्ट क्या बनाता है? गोलाकार भुंगा ज्यादातर कच्छ के बन्नी घास के मैदान में पाए जाते हैं। यह घास के मैदान सबसे ज्यादा भूकंप प्रभावी क्षेत्र-5 में बसे हैं।  यहां टट्टर और लिपाई पुताई जैसी निर्माण प्रक्रिया का प्रयोग करके घरों को छोटा और गोलाकार बनाया गया है। कुछ घरों के अंदर की ज्यादातर सजावट मिट्टी के लेप और छोटे-छोटे शीशों की नक्काशी के काम से हुई होती है। घर के अंदर जाने का दरवाजा छोटा, फर्श मिट्टी का और उसके ऊपर गोबर से लेप। दीवारें भी परतदार होती हैं जिस पर गोबर से लेप किया रहता है। भुंगा में अंदर की ओर अंधेरा होता है और चोटीदार घास की छत ज्यादा धूप को अंदर जाने से रोकती है। दीवारों के नीचे छोटे छोटे गोलाकार सुराख होते हैं जो घर को हवादार बनाते हैं ।   

इन घरों का गोल आकार, इन्हें भूकंपरोधी बनाता है और यदि यह घर गिर भी जाएँ, तो हल्के होने के कारण इनसे कोई नुकसान नहीं होता। इन्हें बहुत आसानी से और कम खर्चे में फिर से बनाया जा सकता है। अध्ययन का एक और रोचक पहलू है, हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में पारंपरिक घर जो भूकंप प्रभावी क्षेत्र 4 और 5 में स्थित हैं।

जलवायु, संस्कृति, भौगोलीय स्थिति और जीवनशैली में कच्छ से अलग होने के बावजूद यहां के लोगों ने भी घरों को बनाने में भूकंपरोधी प्रक्रिया को विकसित किया है।स्थानीय सामग्री, पत्थर और लकड़ी का प्रयोग करके घरों को चबूतरों के ऊपर बनाया जाता है, इस प्रक्रिया को कथ-कुनी कहा जाता है। इनकी मोटी दीवारें, बिना किसी चूने या मसाले के पत्थर और लकड़ी की एक के ऊपर एक पड़ी परत का परिणाम है, जो कि भूकंप के झटकों को रोक सकती हैं। 

इन घरों की सतह भी लकड़ी से बनी होती है, जो कि आसानी से ठंडी नहीं होती। घर के निचले भाग में पशुओं को रखा जाता है, और घरों को इस तरह से बनाया जाता है कि पशुओं और रसोईघर से गर्माहट पैदा होती रहती है जो घर को गर्म रखती है।  भारत के अलग अलग क्षेत्रों में इस तरह की विशेषताओं के घर होना सामान्य है। 

उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक 

राजस्थान में मिट्टी और पत्थर की इमारतें और पानी को संरक्षित करने की प्रक्रिया सदियों से मौजूद है। उदयपुर की ओर 250 साल से भी अधिक पुरानी पुरातन पत्थर से बनी हवेली मिल सकती है जबकि जैसलमेर में पीला पत्थर अधिक प्रयोग किया जाता है। पत्थर की इमारतों में गारे के रूप में चूने का प्रयोग उस समय चलन में था और चूने ने अपनी शक्ति को आज भी बरकरार रखा है। इमारतों में चूने के प्रयोग से वे जीवंत रहती हैं जो कि सीमेंट के प्रयोग से संभव नहीं है।  उत्तर पूर्व में बांस का प्रयोग न सिर्फ घर बनाने के लिए बल्कि दूसरे कामों के लिए भी किया जाता है

असम, मेघालय, त्रिपुरा और उत्तर पूर्व के बाकी हिस्सों में,बांस का प्रयोग न सिर्फ घर बनाने के लिए बल्कि दूसरे कामों के लिए प्रमुखता से किया जाता है। फर्नीचर, बर्तन, शिल्प कला और घर भी बांस पर पूरी तरह से निर्भर हैं, क्योंकि कुछ भी बनाने के लिए यह बहुत ही सुविधाजनक है।  एक परिपक्व, सही प्रजाति का उपचारित बांस जीवनभर चल सकता है।   

केरल में कुछ पारंपरिक घर हैं जिन्हें नालूकेट्स कहा जाता है। यह घर आंगन के चारों ओर बनाए जाते हैं, जो कि न सिर्फ घरों की वास्तुकला बल्कि सामाजिक तौर पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं।

आंगन घर का ह्दय है, जो कि चारों और बने कमरों को रोशनी और हवा देता रहता है। इसके साथ ही यह एक ऐसी जगह है जहां परिवार के सदस्य इकट्ठा होते हैं और खास तौर पर महिलाएं इनका सबसे ज्यादा प्रयोग करती हैं। वे घर के इस बाहरी भाग में बिना किसी रोक टोक के रह सकती हैं। आंगन गर्म हवा को घर से बाहर फेंक, खिड़कियों से ठंडी हवा अंदर खींच कर हवा के बहाव में भी मदद करता है। 

घरों के अंदर आंगन पूरे देश में एक जैसा है, लेकिन अलग-अलग क्षेत्र में इसका प्रयोग अलग-अलग उद्देश्य के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए राजस्थान में आंगन का प्रयोग मुख्य रूप से हवा के लिए और बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए किया जाता है। पर केरल के तट और आगे उत्तर कोंकण में लाल लैटराइट पत्थर का प्रयोग करके घर बनाए जाते हैं, जिसे ‘चीरा’ कहा जाता है। यह पत्थर प्राकृतिक रूप से अर्ध छिद्राकार होने के चलते दीवारों को जीवंत रखने में सहायक होते हैं और इमारत के अंदर की नमी तथा तापमान पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। 

घरों के अंदर आंगन पूरे देश में एक जैसा है, लेकिन अलग-अलग क्षेत्र में इसका प्रयोग अलग-अलग उद्देश्य के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए राजस्थान में आंगन का प्रयोग मुख्य रूप से हवा के लिए और बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए किया जाता है

बुरे के लिए बदलाव क्यों?
 
हम जो पारंपरिक, रंगीन और व्यवहारिक ढांचे से उदासीन ढांचे में परिवर्तन देख रहे हैं, उसके कुछ कारण हैं। एक तो लोग खुद उन चीजों से इतने ज्यादा प्रभावित हैं जो कि शहरों में, फिल्मों में और मीडिया में देखते हैं। अब वे कंक्रीट की इमारतें बनाने की चाहत रखते हैं, जो कि एक पक्के मकान  का सूचक और शक्ति, प्रतिष्ठा और सम्मान का प्रतीक है।   

परंपरागत घरों के फायदे  
 

मजबूतीः घर 50 से 250 साल तक पुराने हैं, बावजूद इसके बहुत मजबूत रहते हैं   

तापमान का नियंत्रणः चूंकि मिट्टी, पत्थर और लट्ठे से होते हुए बहुत ही धीमी प्रक्रिया के द्वारा गर्मी या ठंड अंदर जाती है, यह घर सर्दी में गर्म और गर्मी में ठंडे रहते हैं  

संदर्भः यह घर उस क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए बनाए जाते हैं 

समुदाय का योगदानः पारंपरिक तौर पर घर बनाने के लिए दूसरे गांव वालों का योगदान भी रहता है फिर वह चाहे मिट्टी लेपना हो या फिर लकड़ियां ढोना  

मनुष्य-प्रकृति बंधनः अपने खुद के घरों को बनाने में इंसान कौशल का प्रयोग करके अपने घरों के साथ एक आध्यात्मिक संबंध का सृजन करता है 

पर्यावरण मित्रताः पारंपरिक घर बनने से पहले, बनते समय और बनने के बाद हमेशा ही प्रकृति से जुड़े  रहते हैं 

प्राकृतिक सामग्री जैसे बांस और मिट्टी को गरीब आदमी की सामग्री के तौर पर देखा जाता है। और यह भाव इंसान के मन पर तब गहरा प्रभाव डालता है जब मिट्टी के घरों में रहने के चलते उन्हें अपने बच्चों की शादी करने तक में परेशानी का सामना करना पड़ता है।  हालांकि, आज लोग खुद की इच्छा से आधुनिक सामग्री का प्रयोग करके घर बना रहे हैं, लेकिन भारतीयों के बारे में रुचिकर बात यह है कि जब उनसे परंपरागत घरों के बारे में पूछा जाएगा, तो वे खुशी से, भावना में बहते हुए आज के घरों के मुकाबले उन परंपरागत घरों के लाभों की सूची दे देंगे।

पारंपरिक घरों में गिरावट का एक अन्य कारण औद्योगिक सामग्री का प्रचार होना है। जिसका एक उदाहरण जस्ता चढ़ी हुई लोहे की चादर या टिन की चादर का होना है, जिसने पूरे देश का परिदृश्य बदल दिया। देश में जिन जगहों पर पहले मिट्टी के खपरैल, पाटौर या फिर घासफूस की छत देखी जा सकती थी, आज वहां ईंटों की पटिया या फिर टिन की चादरों का प्रयोग ज्यादा नजर आता है। यह टिन की चादरें एक तो सस्ती हैं और दूसरा इन्हें जोड़ना बहुत ही आसान है। लेकिन इनके बहुत से दुष्परिणाम भी हैं।

इसके अलावा यह सच्चाई है कि टिन की चादर एक परिष्कृत, औद्योगीकृत और अप्राकृतिक सामग्री है। अगर यह अच्छी तरह से नहीं लग पाती तो तेज हवा से बहुत ही आसानी से उखड़ सकती है और गंभीर क्षति का कारण बन सकती है। यह टिन की चादर बहुत ही हल्की होती है जो दिन के समय धूप से बहुत गर्म हो जाती है जिसके चलते घर का तापमान बाहर के तापमान की अपेक्षा ज्यादा होता है जबकि रात में घर के अंदर बाहर की अपेक्षा ज्यादा ठंडक रहती है। 

सीमेंट, स्टील आदि सब आसानी से उपलब्ध है, और इन्हें इस तरह से बेचा जाता है कि यह बिना किसी रखरखाव के जीवनभर चलेंगे। जबकि यह गलत धारणा है।  इस पर सरकार की भूमिका का भी गंभीर प्रभाव पड़ा है। व्यावसायिक प्रशिक्षण, सांस्कृतिक कला, शिल्प और पारंपरिक कौशल को बढ़ावा देने की बजाय सरकार ने भविष्य की संभावना को देखते हुए विकास की उस प्रणाली को चुना जो कि उद्योगों पर आधारित हैं। इसने बाजार में उद्योगों को तो जीवित रखा लेकिन बाकी सब के लिए परेशानी खड़ी कर दी। इसके चलते बहुत से कारीगरों को अपना सालों पुराना व्यवसाय छोड़ कर अलग काम की तलाश में दूसरी जगहों पर जाना पड़ रहा है। 

प्राकृतिक आपदा के समय जब पूरे गांव ढह जाते हैं, तब भी सरकार की भूमिका नकारात्मक ही होती है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2010 में लद्दाख में बादल फटने के बाद सरकार ने लोगों को जस्तेदार लोहे के कमरे दिए। मगर यह कमरे लद्दाखी कड़ाकेदार सर्दी से लोगों का बचाव नहीं कर सके, जबकि मिट्टी की ईंटों से बनी दीवारें ठंडे मौसम से घरों का बचाव करती हैं। 

कुछ उम्मीद, कुछ प्रयास 

वर्तमान में उपलब्ध तकनीक के साथ-साथ कारीगरों द्वारा स्थानीय और प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग करके पारंपरिक वास्तुकला को आगे लाने का काम भारत में और दूसरे देशों में बहुत धीमी गति से हो रहा है। हिमाचल प्रदेश में दीदी कॉन्ट्रेक्टर पारंपरिक मिट्टी और लट्ठे के बने घरों को पुनर्जीवित कर रही हैं। वहीं गुजरात में ‘हुनरशाला फाउंडेशन’, ‘पीपल इन सेंटर’और ‘थंब इंप्रेशन’ जैसे संगठन कारीगरों और शिल्पकारों के साथ काम करके मददगार बन रहे हैं। अरोविल में ‘बुलडोर’ और मुंबई में मलक सिंह और ‘पुट यूअर हैंड्स टूगेदर’ जैसे उदाहरण भी हैं, जहां लोग और संगठन अच्छी और दीर्घकालिक वास्तुकला के लिए एक साथ मिल कर काम कर रहे हैं।  

हिमाचल प्रदेश में दीदी कॉन्ट्रेक्टर पारंपरिक मिट्टी और लट्ठे के बने घरों को पुनर्जीवित कर रही हैं। वहीं गुजरात में ‘हुनरशाला फाउंडेशन’, ‘पीपल इन सेंटर’और ‘थंब इंप्रेशन’ जैसे संगठन कारीगरों और शिल्पकारों के साथ काम करके मददगार बन रहे हैं

सरकार भी सतत समग्र विकास के लिए ज्यादा उदार हो गई है। बिहार में वर्ष 2008 में कोसी में आई बाढ़ के बाद बड़े पैमाने पर कंक्रीट के घर बनाने की बजाय, सरकार ने कुछ संगठनों के साथ मिल कर ऑनर ड्रिवन रीहेबिलीटेशन कॉलेबोरेटिव (ओडीआरसी) बनाया । जिसका मुख्य उद्देश्य बाढ़ प्रभावित परिवारों की जरूरत के हिसाब से बांस (या ईंट) से बने घरों को बढ़ावा देना था। इस परियोजना को वर्ष 2010 में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में सफलतापूर्वक परखा गया, और उसके बाद से सरकार निर्माण और पुनर्वास के उसी तरीके को आज तक अपनाती आ रही है। 

एक और उदाहरण गुजरात में इंदिरा आवास योजना के तहत बनने  वाले घरों को लेकर हुई प्रगति का है। सरकार द्वारा पूरे राज्य में अलग-अलग तरह से बनी पारंपरिक वास्तुकला का अध्ययन किया गया है, और वह इस संभावना पर विचार कर रही है कि इसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) से जोड़ कर लोगों को अपनी पसंद के घर खुद बनाने दिए जाएं। सरकार और लोगों की एक साथ पहल से, ज्यादा से ज्यादा टिकाऊ और मानवीय वास्तुकला का सृजन होने की संभावना है। 

अरीन मुंबई में पारम्परिक वास्तुकला पर कार्य कर रहे हैं 

संपादन: वंदना गुप्ता

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