December 3, 2013
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नाविक और मछुआरे सरदार सरोवर में अपने पानी और मछली पर हक के लिए प्रदर्शन करते हुए। सौजन्य: नर्मदा बचाओ आन्दोलन

नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने विरोध को एक नया रूप दिया और कई कर्मठ कार्यकर्ताओं की फ़ौज खड़ी की. पर आज यह आन्दोलन कहाँ है? 
  
मध्य प्रदेश के खंड़वा जिले में मैं झंड़ा चौक की टूटी फूटी सड़क पर चली जा रही थी। मुझे बताया गया था कि नर्मदा बचाओ आंदोलन का ऑफिस इसी सड़क पर पड़ता है। 45 डिग्री तापमान पर अकेले पदयात्रा करते हुए मैं उन साहसिक कार्यकर्ताओं, आंदोलन को मिले व्यापक समर्थन और उसके विस्तृत प्रभाव के बारे में सोचने को मजबूर थी जो कि इस आंदोलन के नाम का पर्याय था।  मैं उस दफ्तर में इस उम्मीद से घुसी थी कि वहां आंदोलन को लेकर खासा शोर गुल हो रहा होगा। जो काम पूरे देश को झकझोरने का केंद्र बना हुआ है, उससे कम से कम आप इतनी उम्मीद तो कर ही सकते हैं।  

नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ काम करने के मेरे निर्णय से बहुत से लोग आश्चर्यचकित थे। मध्य भारत के ग्रामीण इलाके में गर्मियों की छुट्टियां बिताने के मेरे फैसले पर  दोस्तों और परिजनों ने सवाल उठाए। लेकिन आंदोलन को लेकर मेरे मन में जो जिज्ञासा थी, मैं उसे शांत करना चाहती थी। 90 के दशक में पैदा होने के चलते मैं और मेरे जैसे बहुत से लोग देश के उन पलों के साक्षी नहीं बन सके जब कार्यकर्ता पूरे साहस के साथ आंदोलन के साथ खड़े थे। हम जब तक होश में आये तब तक बांध बन चुका था। और हां, एक तरह से, लगातार दोहराया जा रहा यह सवाल जायज था कि ‘बांध तो बन गया, लेकिन अब क्या’?

90 के दशक में पैदा होने के चलते मैं और मेरे जैसे बहुत से लोग देश के उन पलों के साक्षी नहीं बन सके जब कार्यकर्ता पूरे साहस के साथ आंदोलन के साथ खड़े थे। हम जब तक होश में आये तब तक बांध बन चुका था। और हां, एक तरह से, लगातार दोहराया जा रहा यह सवाल जायज था कि ‘बांध तो बन गया, लेकिन अब क्या’? 

संघर्ष और पुनर्निर्माण

नर्मदा बचाओ आंदोलन तब उभरा जब नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत नर्मदा और उस की सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मध्यम और 3,000 छोटे बांधों के निर्माण की योजना तैयार हुई। उस समय, कई प्रदर्शनकारी समूह, छात्र गुट, गैर सरकारी संगठन और अंतर्राष्ट्रीय तंत्र पहले से ही तीन बांध प्रभावित राज्यों, मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र, में सक्रिय थे। उनमें से ही एक गुजरात का युवा समूह था, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी, जिसने पीड़ितों को अच्छा पुनर्वास पैकेज दिलाने के लिए सरकार को बाध्य किया, साथ ही वे इस बात को भी सुनिश्चित करते रहे कि सरकार अपने वादे पर बरकरार रहे।  

वहीं मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ ऐसे समूह दिखाई दिए जो पहले अच्छे मुआवजे की मांग कर रहे थे, लेकिन बाद में इस तरह की परियोजनाओं को पूरी तरह बंद करने की बात करने लगे। यह समूह थे, नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति (मध्य प्रदेश) और नर्मदा घाटी धरनग्रस्ठा समिति (महाराष्ट्र)। बाद में इनका आपस में विलय हो गया और वर्ष 1989 में इसने नर्मदा बचाओ आंदोलन का रूप ले लिया।

जब बांध के निर्माण पर रोक लगाने की बात कही जा रही थी,  तब इस समूह ने कृषि, बिजली और पीने के पानी की समस्या से निपटने के लिए कुछ विकासात्मक विकल्प भी प्रस्तावित किए। पर यह विरोध सिर्फ बाँध का नहीं अपितु उस प्रणाली का भी था जो जवाबदेही से कतराती थी। जवाबदेही विश्व बैंक की परियोजना के दावों पर और जवाबदेही सरकार की उसके प्रभावों पर। मेधा पाटेकर के नेतृत्व में आंदोलन सबसे पहले सरदार सरोवर बांध के विरोध के साथ शुरू हुआ लेकिन जल्दी ही महेश्वर, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर, मान, बेड़ा, गोई और जोबट जैसे छोटे-छोटे बांधों का भी विरोध होने लगा। इन लोगों ने संघर्ष और पुनर्निर्माण या संघर्ष और नवनिर्माण के सिद्धांत को अपनाया। और इस विचारधारा ने इस आंदोलन की रुपरेखा तैयार कर इसकी नींव खड़ी की। 

यह विरोध सिर्फ बाँध का नहीं अपितु उस प्रणाली का भी था जो जवाबदेही से कतराती थी। जवाबदेही विश्व बैंक की परियोजना के दावों पर और जवाबदेही सरकार की उसके प्रभावों पर

वह लोग, वह समर्थक 

मुझे अहसास हुआ कि आंदोलन को लेकर मेरी जो अवधारणा थी वह वास्तविकता केमहेश्वर बाँध से प्रभावित लोगों सन 2000 में प्रदर्शन करते हुए। सौजन्य: प्रदीप क्रिशन/नर्मदा बचाओ आंदोलन बिल्कुल विपरीत थी। आंदोलन में जानी-मानी हस्तियों का आना घट गया, बड़ी संख्या में एकजुट लोग आंदोलन से अलग होने लगे और देखते ही देखते वह अडिग सा प्रतीत होने वाला आंदोलन कमजोर पड़ने लगा। घटनाचक्र के बारे में लिखा जा चुका था, दृश्यों को कैमरे में कैद किया जा चुका था । वह धर्मयुद्ध जो व्यापक मीडिया कवरेज के द्वारा घर घर तक पहुंचा था, अब अकेला खड़ा था। यह सब जानते हुए भी मैं इतने बड़े आन्दोलन के पीछे एक छोटी सी सहायक प्रणाली देख कर दंग रह गयी।

मध्य प्रदेश के पांच बड़े बाँध प्रभावित क्षेत्रों की ज़िम्मेदारी सिर्फ दो लोगों पर है। चित्त रूपा पाटिल और आलोक अग्रवाल तब नौजवान थे जब वह देश के बेहतरीन शिक्षा संस्थानों, इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आनंद, और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी, से पढाई पूरी कर आन्दोलन में आ जुड़े।

आज उनके नाम से नर्मदा घाटी उठ खड़ी होती है । उनके आने पर औरतें घर का काम काज छोड़ देती हैं, मर्द खलिहानों से वापिस आ जाते हैं और वृद्ध सिल्वी जी और आलोक भाई को अपने घर लिवाने की होड़ में रहते हैं । एक देर रात की बातचीत के दौरान सुलगांव के कैलाशजी ने काफी गहरी भावना से आलोक को भगवान कृष्ण और सिल्वी को माँ दुर्गा कहा । जी हाँ इन लोगों के लिए यह दोनों भगवान से कम नहीं ।

उनके नाम से नर्मदा घाटी उठ खड़ी होती है । उनके आने पर औरतें घर का काम काज छोड़ देती हैं । मर्द खलिहानों से वापिस आ जाते हैं और वृद्ध सिल्वी जी और आलोक भाई को अपने घर लिवाने की होड़ में रहते हैं

वे आम लोगों के साथ जमीन पर बैठते, मजदूरों के क्षेत्र में जाते, अंतरजातीय विवाह और लड़कियों की शिक्षा का समर्थन करते । उनके तौर तरीकों ने पहले तो संदेह पैदा किये, लेकिन जल्दी ही उन्हें लोकप्रिय स्वीकृति मिल गई। उन्होंने पहले से मौजूद कड़े सामाजिक मानदंडों को तोड़ा और नए लचीले, उदार मानदंड बनाए। इतनी लोकप्रियता के बावजूद दोनों आंदोलन की चमक दमक से दूर रहें। “आंदोलन के साथ बड़े होना ठीक हैं, आंदोलन से बड़े हो जाना नहीं,” यह शब्द जो सिलवी ने मुझे पहले दिन कहे थे, अब इस आंदोलन के विकेन्द्रीय स्वरूप के मानक दिख रहें थे।

नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ने के कुछ दिन बाद ही मुझे इस काबिल समझा गया कि मैं नर्मदा बांध प्रभावित लोगों से उनके वैधानिक अधिकारों के बारे में बात कर सकती हूं, वहां हो रहे नियमों के उल्लंघन की सूची बना सकती हूं और ज्यादा से ज्यादा गांव वालों को आंदोलन से जोड़ सकती हूं। मैं उन अनदेखे गांवों की यात्रा पर निकल पड़ी, ऐसे वाहनों पर जो मुझे नहीं पता था अभी भी इस्तेमाल होते हैं, और ऐसी जगहों पर रहने जो मेरे शहरी जीवन से बिलकुल अलग थे।

मेरे पास सिर्फ कुछ लोगों के फ़ोन नंबर थे जिनके पास नाव या मोटर साइकिल थी, एक हाथ से बना हुआ नक्शा जिसमे उन सभी जगहों के नाम थे जहाँ बसें रूकती हैं और कुछ लोगों के नाम जो शायद मुझे घर में पनाह दे सकते थे। मेरी पहली मंजिल दुकिया गांव आने ही वाला था। मैं खुद को थोड़ा गौरवांवित और थोड़ा चिंतित महसूस कर रही थी। लेकिन वहां पहुंचने के बाद मेरी खुद की सुरक्षा को लेकर जो चिंता खत्म हो गई। सौ से ज्यादा लोगों का लगभग पूरा गांव बेसब्री से मेरे पहुंचने का इंतजार कर रहा था। वास्तविक गाँव, जो कि अब जलमग्न हो चुका था, से मात्र कुछ ही मीटर की दूरी पर यह पुनर्वास की जगह एक छोटी सी मनोरम पहाड़ी पर थी। उस क्षेत्र का यह वह हिस्सा था जिसने कि नर्मदा बचाओ आंदोलन का पुरजोर समर्थन किया था। अभी भी लोग आंदोलन का पूरी गर्म जोशी के साथ स्वागत करते हैं।  

संशय के साथ 

मैं आंदोलन में एक 19 साल के लड़की की तरह गयी थी जो उस विषय को ले कर गंभीर तो थी पर मन में अनदेखे, अनजाने के लिए संदेह था। बांध के पर्यावरण, समाज और लोगों की आर्थिक स्थिति पर होने वाले प्रभावों के बारे में काफी सामग्री उपलब्ध है । मुझे अपनी कक्षा दस की सी बी एस ई की किताब  याद आई जिसमे बांधों को नये भारत के मन्दिरों की उपाधि दी गयी थी। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की कही यह बात अक्सर विकास का समर्थन करने वाले भाषणों में सुनने मिलती है परन्तु उन्ही द्वारा मात्र चार साल बाद ही बड़े बांधों को “महाकाय बीमारी” की उपमा दिया जाना न ही कोई याद करता है और न किसी किताब में शामिल है । इन परियोजनाओं पर बहुत सारा पैसा और समय खर्च किया गया, लेकिन बाद में उनके लाभों का अनुमान लगाने के लिए सरकार ने कभी इनके मूल्यांकन के आदेश नहीं दिए। 

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बांधों पर कही यह बात अक्सर विकास का समर्थन करने वाले भाषणों में सुनने मिलती है परन्तु उन्ही द्वारा मात्र चार साल बाद ही बड़े बांधों को “महाकाय बीमारी” की उपमा दिया जाना न ही कोई याद करता है और न किसी किताब में शामिल है 

जब कीमत-लाभ का विश्लेषण बांध बनने से पहले किया जाता है, तब लाभ को बढ़ा चढ़ा कर और उसके नुकसान को कम करके आंका जाता है। सरदार सरोवर बांध पर निर्माण के समय 6,400 करोड़ रुपए लागत का अनुमान लगाया गया था लेकिन जब यह वर्ष 2010-2011 में बन कर तैयार हुआ तब इस पर कुल 40,000 करोड़ रुपए का खर्च आया। इसी तरह से बरगी बांध पर अनुमानित लागत से 10 गुना ज्यादा खर्च आया, जबकि इसने तय किए गए सिंचित क्षेत्र के मात्र पांच फीसदी हिस्से को ही लाभन्वित किया। जैव विविधता का नुकसान, भूकम्प का बढ़ता खतरा, भूमि स्न्ख्लन, मृदा लवणता, जल भराव, मच्छरों का पनपना, भयानक बाढ़ और नदी का मुहाना जैसी जगहों के नुकसान को नहीं आंका गया। दो बड़े बांधों के निर्माण के समय तकरीबन 33,923 करोड़ रुपए कीमत का वन क्षेत्र डूब में आ गया लेकिन लागत-लाभ विश्लेषण में इसको नहीं जोड़ा गया क्योंकि पर्यावरण और वन मंत्रालय का कहना था कि इसके हर्जाने चुकाना असंभव है। बाँध बनने से पहले विस्थापित होने वालों का अनुमान किसी भी तरह से अंत में 4 करोड़ विस्थापिकों की संख्या के करीब नहीं था। 

बरगी बांध पर अनुमानित लागत से 10 गुना ज्यादा खर्च आया, जबकि इसने तय किए गए सिंचित क्षेत्र के मात्र पांच फीसदी हिस्से को ही लाभन्वित किया

मोहभंग और आत्मसमर्पण 

बांध प्रभावितों के लिए बदलाव नित्य है। सौजन्य: मेधा उनियालनर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ मेरा अनुभव इन सभी तथ्यों को सच कर गया। मैंने बेहिसाब आंकड़ों के उस खेल को देखा और उन समाजशास्त्रीय शोध के जीवित तथ्यों की साक्षी बनी, जो कि किताबों और पत्रिकाओं में भरे पड़े थे। जहाँ एक और मैंने मानव क्रूरता से साक्षात्कार किया, वहीं दूसरी ओर बदतर से बदतर वक्त में सच्ची इंसानियत से मिलना हुआ।  

गांव में रहने से मैंने जाना कि समूह में कैसे रहा जाता है, हर व्यक्ति के साथ नजदीकी रिश्ता कैसे बनता है, घरों के दरवाजे हर समय खुले कैसे रहते हैं और क्यों पुलिस की ज़रुरुत नज़र नहीं आती।  लेकिन यह सामान्य गांव नहीं थे। यह वो गांव थे जो परियोजना से प्रभावित थे। मैंने विस्थापन की सच्चाई और उससे जुड़ी समस्याओं को जाना। कुछ विस्थापितों को मुआवजा मिला ही नहीं और कुछ को मुआवजे ने नशे के आदी बना कर परिवारों को उजाड़ दिया। 

किसान पुनर्वास के रूप में मिली बंजर जमीन को लेकर असहाय थे, बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे थे, आपस में भाईचारा खत्म हो रहा था। मैंने उन विस्थापितों के दर्द को भी देखा जिन्हें दो बार उजाड़ा गया। कर्ज के बोझ से लदे विस्थापित पुनर्वास के रूप में मिले उस छोटे से टुकड़े पर जैसे तैसे गुजर बसर कर रहे थे कि पता चला उन्हें वहां से फिर से विस्थापित किया जा रहा है। पर एक अनुभव जिसने मुझ पर सबसे ज्यादा प्रभाव छोड़ा वो था मोहभंग की निर्दयता। मोहभंग सरकार और आंदोलन से।  

यह देख कर मेरे दिल को बहुत चोट पहुंची कि हरसूड़ के विस्थापितों ने मुआवजे के लिए लड़ने से इंकार कर दिया। यह वही हरसूड़ था जिसने एक समय उस जलमग्न जमीन से हटने को इंकार करने देश को भावविभोर कर दिया था।

यह वही जगह थी, जिसकी धरती सबसे ज्यादा आंदोलनों की साक्षी बनी और जिसने देश के कोने कोने से आए हजारों कार्यकर्ताओं को पनाह दी। 700 साल पुराने कस्बे के अचानक इस तरह खामोश हो जाने से  सब हैरान थे। इसने आन्दोलन के उत्साह को कम कर दिया था।  जब अपने खुद के घरों को ढहाना पड़ा तब हरसूड़ के लोग बुरी तरह टूट गये। उनमें से काफी लोगों को मुआवजा नहीं मिला। यह वही हरसूड़ था जिसने एक समय उस जलमग्न जमीन से हटने को इंकार करने देश को भावविभोर कर दिया था

एक अनुभव जिसने मुझ पर सबसे ज्यादा प्रभाव छोड़ा वो था मोहभंग की निर्दयता। मोहभंग सरकार और आंदोलन से। यह देख कर मेरे दिल को बहुत चोट पहुंची कि हरसूड़ के विस्थापितों ने मुआवजे के लिए लड़ने से इंकार कर दिया।

हालांकि आज उनके घर पूरी घाटी में फैले हुए हैं वह एकजुट हो कर नए घरों को छोड़ने से इंकार कर रहें हैं। यह इंकार संघर्ष के खिलाफ भी है और किसी वादे के खिलाफ भी। आंदोलन को इस तरह की बहुत सी पराजयों का सामना करना पड़ा है, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण जीतों ने इसे बांधे रखा। भूमिहीन मजदूरों का मुआवजा बढ़ना, जमीन की कीमतें फिर से समायोजित होना, कानूनी निवारण के साथ महेश्वर परियोजना पर पूरी तरह से रोक लगना जैसे सकारात्मक फैसलों ने आंदोलन के मनोबल को ऊंचा रखा। 

बहुत सालों तक नर्मदा बचाओ आंदोलन को बदनाम करने के तरीके ढूंढ़े जाते रहे।  आंदोलनकारियों पर राष्ट्र विरोधी और विकास विरोधी का ठप्पा लगाया जाता रहा है। यहां तक की प्रदर्शन के मकसद पर भी सवाल उठाए जाते रहे। वर्ष 2011 में ‘जल सत्याग्रह’ हुआ जिसमें 51 जल सत्याग्रही लगातार 17 दिनों तक पानी में बैठ कर प्रदर्शन कर रहे थे। वे मात्र तीन घंटे के लिए खाने और सोने के लिए उस जगह से उठते थे। इस प्रदर्शन ने आंदोलन को एक बार फिर न्यूज चैनलों की प्राइम टाइम खबर तक पहुंचा दिया और संघर्ष के उस जज्बे को फिर से चेता दिया। पर टाइम्स ऑफ़ इंडिया में आई एक खबर, “Reality bites: Khandwa’s made-for-TV protest”,  ने इसे पाखंड का नाम दिया जबकि नर्मदा बचाओ आन्दोलन का इस खबर का खंडन करता लेख प्रकाशित नहीं हुआ। यह कहना सही होगा कि अपने बुरे दिनों के बारे में याद करने को आंदोलन के पास बहुत कुछ है। पर जब मैंने गांव वालों को हँसते हुए उन कहानियों को दोहराते सुना जब उन्हें तोड़ने की कोशिशे चल रही थी और कई बार संघर्ष से अलग होने के प्रलोभन दिए गए, तब मुझे लगा कि यह आंदोलन इन सब चीज़ों से बहुत ऊपर है। हाँ उनके बुरे दिन ज्यादा रहें हैं पर यह आंदोलन देर तक टिका रहेगा।     

बांधों से आगे की घाटी 

मैं अपनी यात्रा को याद कर हमेशा एक संतुष्टि के भाव से भर जाती हूँ। इसने मेरे उन सभी सवालों के जवाब दे दिए जो मेरे मन में आंदोलन की प्रासंगिता को ले कर संदेह पैदा कर रहे थे। मैंने महसूस किया कि नर्मदा बचाओ आंदोलन एक समुदाय की तरह विकसित हुआ है। इसने जाति के बंधनों को तोड़ा, लिंग भेद को खत्म किया और धार्मिक विभन्नता को मिटाया क्योंकि यहां बड़ी संख्या में भिन्न भिन्न लोगों ने एक साथ शरण ली।  आंदोलन समाजिक परिस्थितयों को नज़रंदाज़ कर सिर्फ बांध परियोजना तक सिमित नहीं रह सकता था। 

इन दो महीनों में मैंने आंदोलन के साथियों के साथ महिला मजदूर संगठन गठित किया।  यह महिलाओं की एक ऐसी शाखा है जो उन समस्याओं के प्रति आवाज बुलंद करती थी जिनकी अकसर सुनवाई नहीं हो पाती। दरअसल नर्मदा बचाओ आंदोलन सिर्फ न्याय के लिए संघर्ष नहीं, बल्कि बेहतरी के लिए लड़ाई है। इस एक यात्रा से आंदोलन की अटलता को लेकर मेरे मन में जो सवाल थे उनके उत्तर दे दिये। मुझे उम्मीद है कि इसे पढ़ने के बाद आपको भी अपने कुछ सवालों के जवाब मिले होंगे।  

मेधा उनियाल सेविअर्स कॉलेज, मुंबई, में मास मीडिया की पढाई कर रही हैं। वह 2013 में दो महीने के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन में प्रशिक्षु थी  

संपादन: वंदना गुप्ता

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