
जिस पेड़ की शाख पर बैठे हो उसी को काटने की मूर्खता करते व्यक्ति की कहानी लगभग सभी ने बचपन में पढ़ी है। वर्तमान परिदृश्य में, इस दुनिया के लिए यह कहानी सच प्रतीत होती दिख रही है। काल के इस पल में मानव एक बहुत ही खतरनाक दौर से गुजर रहा है जिससे उसका अस्तित्व ही खतरे में आ गया है । यह संकट स्वनिर्मित है ।
जलवायु परिवर्तन की पृष्टभूमि पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुई पर आज बढ़ते उपभोक्तावाद के दौर में भारत (7%) भी ग्रीन हाउस गैसों के तीसरे सबसे बड़े प्रदूषक के रूप में उभरा है । चीन (25%) और अमेरिका (15%) पहले और दूसरे स्थान पर है ।
जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर विषय के कई आयाम है जो विकासशील देशो के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है किन्तु सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में चर्चा हो ऐसा जरूरी नहीं है । अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में चर्चा की अपनी परिसीमा और अक्रियता भी रहती है ।
समस्या और समाधान
जलवायु परिवर्तन के कई आयाम हैं पर विषय को समझने में आसानी रहे इसके लिए मैं इस लेख मे बिन्दुवार छह प्राथमिकता मुद्दे और उनका संभव समाधान का सारांश रख रहा हूँ।
I. अत्याधिक और अनावश्यक उपभोग
जलवायु परिवर्तन की वर्तमान समस्या की धुरी अनावश्यक अत्यधिक उपभोग को माना जा सकता है। जनता द्वारा अत्यधिक उपभोग कंपनियों के लाभ में वृद्धि का मूल रहता है। आधुनिक आर्थिक सिद्धांतों के संकेतक जैसे कि GDP, GNP इत्यादि जो राष्ट्र की समृद्धि और विकास के मापक माने जाते है वह भी सीधे-सीधे एक राष्ट्र की खपत पर आधारित है। असल में विकास का यह सूचक ही त्रुटिपूर्ण हैं और इसकी छाया में जलवायु परिवर्तन की समस्या का निवारण होना कठिन है। यह अत्यधिक विलासपूर्ण जीवन जीने के साधन और अनावश्यक उपभोग पर्यावरण क्षरण के लिए सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं । एक छोटी अवधि में अत्यधिक उपभोग से हम न केवल पर्यावरणीय क्षति के लिए जबाबदेह है अपितु इसके कार्बन पदचिह्न (Carbon Footprints) अब सीधे तौर पर देखे जा सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में इस विषय पर चर्च नहीं होती क्योंकि इस तरह के संवाद इन सम्मेलनों को प्रायोजित करने वाले विकसित देशों और औद्योगिक भागीदारों को हितकारी नहीं लगते।
समाधान: अनावश्यक उपभोग और निर्माण को हतोत्साहित और सीमित करने की आवश्यकता है। यह हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। उद्योगो के आकार को सीमित करने के लिए नीति निर्धारण करनी चाहिए । धन संचय की सीमा का निर्धारण भी पर्यावरण शोषण को रोकने के लिए उपयोगी हो सकता है। यह एक अत्यंत ही कठिन और धैर्यपूर्ण कार्य है जिसे पूरी सूझबूझ और युक्ति के साथ कार्यान्वित करना पड़ेगा।
II. डिस्पोजेबल अर्थव्यवस्था
पिछले 30-40 वर्षों में 'डिस्पोजेबल उत्पादों' का प्रयोग एक नयी बाज़ारी प्रक्रिया के रूप में सामने आया है। इस नयी बाजार- नीति से पहले कभी नहीं सोचे जाने वाला कचरा उत्पादित हुआ जिससे हमारे पर्यावरण को अभूतपूर्व क्षति पहुंची। यह भी पश्चिमी संस्कृति का अंधाधुंध अनुसरण करने का ही परिणाम है। उपभोक्तावाद का मसीहा अमेरिका ही कचरे का भी सबसे बड़ा उत्पादक है। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि एल्यूमीनियम के डिब्बे के मुकाबले एक कांच की बोतल के उपयोग में केवल 10 प्रतिशत ऊर्जा की ही आवश्यकता होती है। फिर भी बाज़ारवाद के चलते कांच की बोतले गायब कर दी गयी और अल्मुनियम और प्लास्टिक की बोतलों और डिब्बो ने उनकी जगह ले ली। हर बोतल पर 90 प्रतिशत अतरिक्त ऊर्जा व्यर्थ हो जाती है।
पिछले 30-40 वर्षों में 'डिस्पोजेबल उत्पादों' का प्रयोग एक नयी बाज़ारी प्रक्रिया के रूप में सामने आया है। इस नयी बाजार- नीति से पहले कभी नहीं सोचे जाने वाला कचरा उत्पादित हुआ जिससे हमारे पर्यावरण को अभूतपूर्व क्षति पहुंची
अनावश्यक डिस्पोजेबल खपत का एक और उदाहरण है बोतलबंद पानी। अमेरिका में करीब 28 अरब प्लास्टिक की पानी की बोतलें हर साल उत्पादित होती हैं जो 17 लाख बैरल तेल की खपत के बराबर है। यदि इसमें इन बोतलों को ठण्डा करने के लिए प्रयोग कि जाने वाली ऊर्जा, और इस बोतलबंद पानी का वाहनो द्वारा सैकड़ों मील के सफर का भी आंकलन किया जाये तो यह प्रति वर्ष 50 लाख बैरल तेल की खपत में परिवर्तित होगा। यह सऊदी अरब से अमेरिकी के तेल आयात के 13 प्रतिशत के बराबर की खपत है। 2012 में प्रति व्यक्ति 30 लीटर बोतलबंद पानी की खपत के वैश्विक औसत की तुलना में इटली और UAE में 700 लीटर थी। मेक्सिको में 920 लीटर और भारत में भी प्रति व्यक्ति बोतलबंद पानी की खपत 20 लीटर तक पहुँच गयी।
समाधान: प्रयोज्य (Disposable) उत्पादों और केवल एक बार इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाने अथवा उनके सीमित उपयोग की नीति बनाने की नितांत आवश्यकता है। ऐसा करने से एक ही झटके में एक साथ कार्बन उत्सर्जन, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, और कचरे से भूमि-भरने (Land-Filling) की समस्या से निपटा जा सकता हैं।
III. उत्पादों का घटता जीवनकाल
अधिक टिकाऊ उत्पादों के स्थान पर नयी पश्चिमी विपणन नीति के अंतर्गत उत्पादों का जीवन-चक्र (प्रोडक्ट लाइफ) घटा दिया गया है ताकि पुराना जल्दी से जल्दी ख़राब हो और नये उत्पाद की बिक्री हो। वर्तमान के मुकाबले एक उत्पाद का औसत जीवन चक्र 1980 में तीन गुना अधिक होता था। पुरानी वस्तुएँ अधिक टिकाऊ होती थी और कई-कई बार पूरे जीवन काल में उन्हें बदलने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी। इस नए "Planned obsolescence" के सिद्धांत के परिणामस्वरूप उत्पादन तो बढ़ता है पर इस उत्पादन से जुड़े हुए हर प्रकार के प्रदूषण में भी वृद्धि होती है जो पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।
समाधान: हमें उत्पादों की न्यूनतम आयु/ जीवन-काल तय करने के नियम बनाने चाहियें। अनावश्यक रूप से उत्पादन बढ़ाने की योजनाओ को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। "Planned obsolescence" को रोकने के लिए सख्त कानून की जरूरत है।
वर्तमान के मुकाबले एक उत्पाद का औसत जीवन चक्र 1980 में तीन गुना अधिक होता था। पुरानी वस्तुएँ अधिक टिकाऊ होती थी और कई-कई बार पूरे जीवन काल में उन्हें बदलने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी
IV. ऊर्जा प्रबंधन
30 नवंबर 2015 को पेरिस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन पर अपनी बात रखते हुए दो मुद्दों की ओर विशेष रूप से संकेत किया - 'जीवाश्म ईंधन' और 'ऊर्जा की मांग।' मूल रूप से यह दो मुद्दे बाकि सब पर्यावरण के मुद्दों के साथ जुड़े हुए है ।
हमारी ऊर्जा की आवश्यकताओं में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है। गत वर्ष बिजली की कुल खपत 93 लाख GWh थी । 1947 में भारत में बिजली की प्रति व्यक्ति खपत 16 KWh थी जो आज बढ़कर 1,010 KWh हो गयी है।
भारत की ऊर्जा आवश्यकता का केवल 28% ही अक्षय ऊर्जा संयंत्रों द्वारा आता है और गैर–नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्रों से शेष 72% का गठन होता है। पेरिस में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत द्वारा वर्ष 2030 तक 40 प्रतिशत गैर जीवाश्म ईंधन ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाने और वर्ष 2022 तक अक्षय ऊर्जा का 175 गीगावॉट उत्पादन करने करने का लक्ष्य रखा है। यदि इस तथ्य को ध्यान में रखा जाए कि हम अभी केवल 77 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा का उत्पादन कर रहे है और कोयला अभी भी हमारी ऊर्जा के 170 गीगावॉट की पूर्ति करता है तो यह एक चुनौती-भरा लक्ष्य प्रतीत होता है।
समाधान: हमें अक्षय ऊर्जा उत्पादन के सतत गैर-प्रदूषणकारी स्त्रोत की तरफ अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके साथ हमारे लिए ऊर्जा संरक्षण और अपनी उर्जापूर्ति के अधिक प्रभावी और कुशल तरीकों की खोज (और उपयोग करना) भी एक प्राथमिकता होनी चाहिए। ऊर्जा के दुरुपयोग को रोकने के प्रयास सभी नीतियों में अन्तर्जात होने चाहिए।
हमारी ऊर्जा की आवश्यकताओं में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है। गत वर्ष बिजली की कुल खपत 93 लाख GWh थी । 1947 में भारत में बिजली की प्रति व्यक्ति खपत 16 KWh थी जो आज बढ़कर 1,010 KWh हो गयी है।
V. वाहन - जीवाश्म ईंधन प्रबंधन और नयी कराधान प्रणाली
60 वर्षों में जीवाश्म ईंधन की खपत 10 लाख बैरल प्रति दिन से बढ़ कर 800 लाख बैरल प्रति दिन हो गयी है। फलस्वरूप जीवाश्म ईंधन से कार्बन उत्सर्जन भी 1950 के 16,300 लाख टन के स्तर से बढ कर 2011 में 92,650 लाख टन के स्तर पर पहुंच गया है। भारत में जीवाश्म ईंधन से कार्बन उत्सर्जन 2012 में 183 मिलियन मीट्रिक टन से अधिक था। पिछले 50 वर्षों में बिना ये विचार किये कि हमारे इस कृत का पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा, हम जीवाश्म ईंधन के 80% ज्ञात स्रोतों को खत्म कर चुके हैं।
समाधान: हमे बेहतर, सहज और कुशल सार्वजनिक परिवहन प्रणाली पर काम करने की आवश्यकता है। जीवाश्म ईंधन से चलने वाले वाहनो को हतोत्साहित करने के लिए नई नीतियों की भी ज़रुरत है। किसी भी व्यक्ति द्वारा बिना अनुमति दूसरे वाहन की खरीद पर प्रतिबंध और करों में वृद्धि इत्यादि जैसी नीतिगत पहल भी की जा सकती है।
VI. सतत कृषि आचरण
क्योटो प्रोटोकॉल के अनुच्छेद 2(1)(क)(iii) में सतत कृषि (sustainable) प्रणाली की बात कही गयी हैं। हमारी वर्तमान कृषि प्रणाली कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों पर आधारित है जिसके परिणामस्वरूप सैकड़ों जीवाणुओं, कीड़ों, पक्षियों और जानवरों की प्रजातिया विलुप्त होती जा रही है। ज़हरो के छिड़काव के पर्यावरण पर और भी दूरगामी प्रभाव है। रासायनिक उर्वरको के लिए अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है और अधिक पानी पंप करने के लिए अधिक ऊर्जा खर्च होती है। गत वर्ष कृषि के क्षेत्र में भारत द्वारा ऊर्जा की खपत, कुल ऊर्जा का 18% था जोकि पूरे विश्व में अधिकतम है। यह अपने में एक चौकाने वाला तथ्य है।
यदि कृषि की लागत का वास्तविक अनुमान करना हो तो प्रकृति के नुकसान को भी ध्यान में रखा जाना आवश्यक है। ऐसा आंकलन करने पर कृत्रिम साधनों से की गयी अतिरिक्त उपज निरर्थक लगेगी
समाधान: हमे सतत कृषि के लिए अपने ही समृद्ध कृषि इतिहास को फिर से खोजने और 100% जैविक होने की आवश्यकता है। इसके साथ ही कृषि साधनो, प्राकृतिक संसाधनों या जैविक सामग्री पर बाजार के अनावश्यक मालिकाना नियंत्रण/स्वामित्व के सभी प्रकार के प्रयासों को रोकने की भी नितांत आवश्यकता है। हमारे वन क्षेत्र के वर्धन और सरंक्षण की नीति के बारे में भी हमें और सजग होने की आवश्यकता है।
संक्षेप में
पूरा संकट मानव की ज़रुरत नहीं अपितु लालच का परिणाम है। जो राष्ट्र अभी भी बाज़ारवाद की नीतियों के पीछे पड़े हुए है उन्हें अपने लालच से ऊपर उठकर दुनिया को बचाने के लिए खड़े होना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के परिणाम अमीर और गरीब देशों को एक समान भुगतने पड़ेंगे। ध्यान रहे की जिस कुतर्क से हम इस समस्या के जाल में फसे है उसी प्रकार के तर्कों का उपयोग कर हम इस समस्या से निकल नहीं पाएंगे। इस बार हमें व्याख्यान की नहीं अपितु गंभीर प्रयासो की जरूरत है।
हेमन्त गोस्वामी एक समाजसेवी हैं और कई गैर-सरकारी संस्थानों के साथ जुड़े हुए हैं। आप उनसे email@hemant.org पर संपर्क कर सकते हैं।
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