तालाब ऊपर से सूख जाने के बाद रेत में समा गई नमी को हमारे पुरखे न जाने कब से बेरी, कुंई नाम का एक सुंदर ढांचा बना कर उपयोग में ले आते हैं

टेलिविज़न कहां नहीं है ? हमारे यहां भी है। हमारे यहां यानी जैसलमेर से कोई सौ किलोमीटर पष्चिम में पाकिस्तान की सीमा पर भी। यह भी बता दें कि हमारे यहां देश का सबसे कम पानी गिरता है। कभी-कभी तो गिरता ही नहीं। आबादी कम जरूर है, पर पानी तो कम लोगों को भी जरूरत के मुताबिक चाहिए। फिर यहां खेती कम, पषुपालन ज्यादा है। लाखों भेड़, बकरी, गाय और ऊंटों के लिए भी पानी चाहिए। इस टेलिविज़न के कारण हम पिछले न जाने कितने दिनों से देश के कुछ राज्यों में फैल रहे अकाल की भयानक खबरें देख रहे हैं। अब पिछले दिनों इसमें क्रिकेट का भी नया विवाद जुड़ गया है और आज या कल में विवेकवान न्यायाधीष कोई न कोई अच्छा फैसला भी सुना देंगे।

आपके यहां कितना पानी गिरता है, आप ही जानें। हमारे यहां पिछले दो साल में कुल हुई बरसात की जानकारी हम आप तक पहुंचाना चाहते हैं। सन् 2014 में जुलाई में 4 एम.एम. और फिर अगस्त में 7 एम.एम. यानी कुल 11 एम.एम. पानी गिरा था। तब भी हमारा यह रामगढ़ क्षेत्र अकाल की खबरों में नहीं आया। हमने खबरों में आने की नौबत ही नहीं आने दी। फिर पिछले साल सन् 2015 में 23 जुलाई को 35 एम.एम., 11 अगस्त को 7 एम.एम. और फिर 21 सितंबर को 6 एम.एम. बरसात हुई। इतनी कम बरसात में भी हमने हमारे पांच सौ बरस पुराने विप्रासर नाम के तालाब को भर लिया था।

इस टेलिविज़न के कारण हम पिछले न जाने कितने दिनों से देश के कुछ राज्यों में फैल रहे अकाल की भयानक खबरें देख रहे हैं। अब पिछले दिनों इसमें क्रिकेट का भी नया विवाद जुड़ गया है

यह बहुत विशेष तालाब है। लाखों वर्षों पहले प्रकृति में हुई भारी उथल-पुथल के कारण इस तालाब के नीचे खडि़या मिट्टी की, मेट की या जिप्सम की एक तह जम गई थी। इस पट्टी के कारण वर्षा जल रिस कर रेगिस्तान में नीचे बह रहे खारे पानी में मिल नहीं पाता। वह रेत में नमी की तरह सुरक्षित रहता है। इस नमी को हम रेजवानी पानी कहते हैं। तालाब में ऊपर भरा पानी कुछ माह तो गांव के काम आता है। इसे हम पालर पानी कहते हैं। उस पूरे विज्ञान में अभी नहीं जाएंगे पर तालाब ऊपर से सूख जाने के बाद रेत में समा गई इस नमी को हमारे पुरखे न जाने कब से बेरी, कुंई नाम का एक सुंदर ढांचा बना कर उपयोग में ले आते हैं। अब अप्रेल के तीसरे हफ्ते में भी हमारे तालाब में ऊपर पानी भरा है। जब यह सूखेगा तब रेजवानी पानी इसकी बेरियों में आ जाएगा और हम अगली बरसात तक पानी के मामले में एकदम स्वावलंबी बने रहेंगे।

यह बहुत विषेष तालाब है। लाखों वर्षों पहले प्रकृति में हुई भारी उथल-पुथल के कारण इस तालाब के नीचे खडि़या मिट्टी की, मेट की या जिप्सम की एक तह जम गई थी। इस पट्टी के कारण वर्षा जल रिस कर रेगिस्तान में नीचे बह रहे खारे पानी में मिल नहीं पाता। वह रेत में नमी की तरह सुरक्षित रहता है। इस नमी को हम रेजवानी पानी कहते हैं

इस विषेष तालाब विप्रासर की तरह ही हमारे जैसलमेर क्षेत्र में कुछ विषेष खेत भी हैं। यों तो अकाल का ही क्षेत्र है यह सारा। पानी गिरे तो एक विप्रासर तालाब फसल हाथ लगती है। पर कहीं-कहीं खडि़या या जिप्सम की पट्टी खेतों में भी मिलती है। समाज ने सदियों से इन विषेष खेतों को निजी या किसी एक परिवार के हाथ में नहीं जाने दिया। इन विषेष खेतों को समाज ने सबका बना दिया। जो बातंे आप लोग षायद नारों में सुनते हैं, वे बातें, सिद्धांत हमारे यहां जमीन पर उतार दिए गए हंै हमारे समझदार पुरखों द्वारा। इन विषेष खेतों में आज के इस गलाकाट जमाने में भी सामूहिक खेती होती है। इन विषेष खेतों में अकाल के बीच भी सुंदर फसल पैदा की जाती है।

साल के कुल गिरे पानी के आंकड़े तो आपने ऊपर देखे ही हैं। अब उनको सामने रख कर इस विषाल देष के किसी भी कृषि विषेषज्ञ से पूछ लें कि दो-चार सेंटीमीटर की बरसात में क्या गेहूं, सरसों, तारामीरा, चना जैसी फसलें पैदा हो सकती हैं। उन सभी विषेषज्ञों का पक्का उत्तर ‘ना’ में होगा। पर अभी आप रामगढ़ आएं तो हमारे यहां के खड़ीनों में ये सब फसलें इतने कम पानी में खूब अच्छे-से पैदा हुई हैं और अब यह फसल सब सदस्यों के खलियानों में रखी जा रही है। तो धुत्त रेगिस्तान में, सबसे कम वर्षा के क्षेत्र में आज भी भरपूर पानी है, अनाज है और पषुओं के लिए खूब मात्रा में चारा है। यह बताते हुए भी बहुत संकोच हो रहा है कि इतने कम पानी के बीच पैदा की गई यह फसल न सिर्फ हमारे काम आ रही है, बल्कि दूर-दूर से इसे काटने के लिए दूसरे लोग भी आ जुटे हैं। इनमें बिहार, पंजाब, मध्यप्रदेष के मालवा से भी लोग पहली बार आए हैं- यानी जहां हमसे बहुत ज्यादा वर्षा होती है, वहां के लोगों को भी यहां काम मिला है।

यह बताते हुए भी बहुत संकोच हो रहा है कि इतने कम पानी के बीच पैदा की गई यह फसल न सिर्फ हमारे काम आ रही है, बल्कि दूर-दूर से इसे काटने के लिए दूसरे लोग भी आ जुटे हैं। इनमें बिहार, पंजाब, मध्यप्रदेष के मालवा से भी लोग पहली बार आए हैं- यानी जहां हमसे बहुत ज्यादा वर्षा होती है, वहां के लोगों को भी यहां काम मिला है

इसके बीच मराठवाड़ा, लातूर की खबरंे टी.वी. पर देख मन बहुत दुखी होता है। कलेक्टर ने धारा 144 लगाई है जल स्रोतों पर। पानी को लेकर झगड़ते हैं लोग। और यहां हमारे गांवों में इतनी कम मात्रा में वर्षा होने के बाद भी पानी को लेकर समाज में परस्पर प्रेम का रिष्ता बना हुआ है। आपने भोजन में मनुहार सुना है, आपके यहां भी मेहमान आ जाए तो उसे विषेष आग्रह से भोजन परोसा जाता है। हमारे यहां तालाब, कुंए और कुंई पर आज भी पानी निकालने को लेकर ‘मनुहार’ चलती है- पहले आप पानी लें, पीछे हम लेंगे। पानी ने सामाजिक संबंध जोड़ कर रखे हैं हमारे यहां। इसलिए जब पानी के कारण सामाजिक संबंध टूटते दिखते हैं देष के अन्य भागों में तो हमें बहुत ही बुरा लगता है।

इसके पीछे एक बड़ा कारण तो है अपनी चादर देख पैर तानना। मराठवाड़ा ने कुदरत से पानी थोड़ा कम पाया पर गन्ने की खेती अपना कर भूजल का बहुत सारा दोहन कर लिया। अब एक ही कुंए में तल पर चिपका पानी और उसमें सैकड़ों बाल्टियां ऊपर से लटकी मिलती हैं। ऐसी आपाधापी में पड़ गया है वह इलाका।

कभी पूरे देष में पानी को लेकर समाज के मन में एक-सा भाव रहा था। आज नई खेती, नई-नई प्यास वाली फसलें, कारखानों, तालाबों को पूर कर बने और बढ़ते जा रहे षहरों में वह संयम का भाव कब का खत्म हो चुका है। तभी हमें या तो चेन्नै जैसी भयानक बाढ़ दिखती है या लातूर जैसा भयानक अकाल। चेन्नै का हवाई अड्डा डूब जाता है बाढ़ में और लातूर में रेल से पानी बहकर आता है ।

मराठवाड़ा ने कुदरत से पानी थोड़ा कम पाया पर गन्ने की खेती अपना कर भूजल का बहुत सारा दोहन कर लिया। अब एक ही कुंए में तल पर चिपका पानी और उसमें सैकड़ों बाल्टियां ऊपर से लटकी मिलती हैं। ऐसी आपाधापी में पड़ गया है वह इलाका

पानी कहां कितना बरसता है, यह प्रकृति ने हजारों सालों से तय कर रखा है। कोंकण में, चेरापूंजी में खूब ज्यादा तो हमारे गांवों में, जैसलमेर में खूब ही कम। पर जो जहां है, वहां प्रकृति का स्वभाव देख कर उसने यदि समाज चलाने की योजना बनाई है और फिर उसमें उसने सरकारों की बातें सुनी नहीं है, लालच नहीं किया है तो वह समाज पानी कम हो या ज्यादा, रमा रहता है। यह रमना हमने छोड़ा नहीं है। कुछ गांवों में हमारे यहां भी वातावरण बिगड़ा था पर अब पिछले 10-15 वर्षों से फिर सुधरने भी लगा है। इस दौर में हमारे समाज ने कोई 200 नई बेरियां, 100 नए खड़ीन, 5 कुएं पाताली मीठे पानी के, कोई 200-150 तलाई, नाडि़यां, टोपे अपनी हिम्मत से, अपने साधनों से बनाए हैं। इन पर सरकारी या किसी स्वयंसेवी संस्था का नाम, बोर्ड, पटरा टंगा नहीं मिलेगा। ये हम लोगों ने अपने लिए बनाए हैं। इसलिए ये सब पानी से लबालब भरे हैं।

देष में कोई भी इलाका ऐसा नहीं है, जहां जैसलमेर से कम पानी गिरता हो। इसलिए वहां पानी का कष्ट देख हमें बहुत कष्ट होता है। हमारा कष्ट तभी कम होगा जब हम अपना इलाका ठीक कर लेने के साथ-साथ देष के इन इलाकों में भी ऐसी बातें, ऐसे काम पहुंचा सकें।

हमारे एक मित्र कहते हैं कि अकाल अकेले नहीं आता। उससे पहले अच्छे कामों का, अच्छे विचारों का भी अकाल आता है।

चतरसिंह जाम  जैसलमेर के रामगढ़ इलाके में समाज के साथ मिल कर पानी संरक्ष्ण का काम कर रहें हैं । उन्होंने एक पत्र श्री अनुपम मिश्र को लिखा था जिन्होंने उसे लेख बनाकर प्रकाशित किया । यह लेख पहले राजस्थान पत्रिका में छपा था